मुमताज़ अली से मधु बनने की कहानी ⋆ Making India
एक योगी का आत्मचरित श्री एम : चलिए यात्रा शुरू की जाय
यात्रा केवल वही नहीं जो मेरे गुरु श्री एम ने 19 वर्ष की आयु में हिमालय की ओर की थी…
यात्रा वही नहीं जो आशा यात्रा के नाम से उन्होंने कन्या कुमारी से कश्मीर तक पैदल की….
यात्रा वह भी है जब हम ऐसे तपस्वियों के सानिध्य में आते हैं जो अपनी यात्राओं को पार कर मंजिल तक पहुँच कर वापस मार्ग की ओर लौटते हैं हमें मार्गदर्शन देने के लिए…
तो श्री एम की पुस्तक हिमालयवासी गुरु के साए में एक योगी का आत्मचरित पढ़ना अपने आप में एक कठिन यात्रा है.. क्योंकि इस यात्रा में शब्दों के पार जाकर उस योगी के अनुभव को आत्मसात करना हिमालय की कठिन यात्रा के समान ही अनुभव होगा…
इस किताब का हर पन्ना मेरे लिए एक यात्रा का मार्ग है… पिछले साल ओशो के जन्मदिन के एक दिन पहले किताब पूरी पढ़ ली थी और उसके अगले दिन उनके जन्मदिन पर एक नई यात्रा शुरू की, वैसे ही जैसे आठ साल पहले 11 दिसम्बर 2008 को ही स्वामी ध्यान विनय से पहली मुलाक़ात पर की थी.
ये तारीखें मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण होती हैं, जैसे 13 नवम्बर 2015 शुक्रवार शाम पौने सात का समय महत्वपूर्ण हैं जिस दिन श्री एम से मुलाक़ात मेरे जीवन के एक नए आध्यात्मिक जीवन में गृहप्रवेश समान था… वैसे ही 7 साल पहले इसी दिन यानी 13 नवम्बर 2009 और यही शुक्रवार मेरे लिए महत्वपूर्ण था क्योंकि उसी दिन मैंने पौने साथ बजे ध्यान विनय के साथ गृहप्रवेश किया था…
तो श्री एम की पुस्तक के प्रस्तावना से पहले के उस पन्ने का वाक्य कहती हूँ जो उन्होंने पुस्तक पढ़ना शुरू करने से पहले पाठकों से कही है… कि चलिए यात्रा शुरू की जाय..
हम मानव, चेतना के चाहे किसी भी स्तर पर पहुँच जाए लेकिन हमारा शरीर चूंकि धरती पर ही रहता है इसलिए उसकी पहचान उसके नाम और धर्म से होती है… तो नाम मुमताज़ अली… नाम से ज़ाहिर है धर्म इस्लाम … जन्म मुस्लिम परिवार में…. लेकिन गुरु मिले हिन्दू … नाथ परंपरा के…. क्योंकि जब बात इस जन्म के नाम से ख़त्म होकर पिछले जन्म के संबंधों की आ जाती है तो नाम छूट जाता है… धर्म, मज़हब, परिवार सबकुछ छूट जाता है….
तो जब मुमताज़ अली का नाम भी छूट गया ….. कहीं वो शिवप्रसाद नाम से पुकारे गए, कहीं श्री एम, कहीं मुमताज़ भी, लेकिन उनके गुरु जिनको वो बाबाजी कहते हैं उन्होंने उन्हें पुकारा उनके पिछले जन्म के नाम से …”मधु”…. और मैंने उनको पहली मुलाक़ात में पुकारा था… “बब्बा….”
यात्रा शुरू करने से पहले उन्होंने बचपन के कई किस्से सुनाए… उनका जन्म, परिवार, भाई बहन … शिक्षा… बचपन में घर के बाहर रास्ते में ढोल मंजीरा ताशे बजाते हुए हिन्दू साधुओं की तरफ आकर्षित होना…. उस मंडली के मुख्य साधु से नज़रें मिलना जिसे बाद में वो दोबारा भी मिलते हैं… सपनों में किसी अर्ध मानव का दिखना फिर झाड़ फूंक के लिए जाना…. और बचपन में ही एक दिन अपने घर के आँगन में एक साधु का अचानक प्रकट हो जाना और श्री एम की छाती को धीरे से थपथपाना…. जब उन्हें लौटने को कहा गया तो वो घर में घुसते हुए एक बार पीछे मुड़कर देखते हैं लेकिन वो साधु वहां से तब तक अंतर्ध्यान……
सबसे बड़ी बात जो मुझे श्री एम की पुस्तक पढ़कर समझ आई कि क्यों स्वामी ध्यान विनय किसी किसी बात पर बिलकुल निष्ठुर होकर मौन हो जाते हैं और मेरे लाख पूछने पर भी किसी रहस्य की गुत्थी के बीच मुझे अनसुलझा ही छोड़ देते हैं…
श्री एम लिखते हैं… घर के आँगन में मिले और अचानक गायब हो गए साधु के बारे में बताने के लिए मुंह खोला लेकिन मेरे मुंह से कोई शब्द नहीं निकला… ऐसा लग रहा था मानों किसी ने मेरी ज़बान पर ताला डाल दिया हो… मैंने फिर कोशिश की और तब हार मान ली……. मैं माँ से अन्य सारी बातें कर पा रहा था लेकिन उस घटना का ज़िक्र करने की कोशिश में मेरी ज़बान जैसे अटक जाती थी….
मैंने कई बार उस घटना के बारे में बताने की कोशिश की, पर असफल रहा…. मुझे इस बात का विश्वास हो गया कि कोई अनजान शक्ति मुझे उस घटना को उजागर करने से रोक रही है. मैंने सारे प्रयत्न बंद कर दिए…. दस साल तक मैं किसी से इस घटना के बारे में बात नहीं कर सका…
– श्री एम की पुस्तक यात्रा (एक योगी का आत्मचरित श्री एम )
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