Breaking News

कामना, कृतज्ञता और जादू - 1 : पश्चिम तुम्हें देख अचंभित है, तुम कब झांकोगे अपने मन में पूरब वालों!! ⋆ Making India


ma jivan shaifaly mark zukerberg neem karoli baba

जिन दिनों मार्क जुकरबर्ग की नीम करोली बाबा से मिलने आने वाली खबर चर्चा में थी, तब मेरे पास एक फेसबुक मित्र का सन्देश आया –
वैसे एक बात समझ नहीं आई, स्टीव जॉब्स और फेसबुक वाले मार्क तो नीम करोली बाबा से प्रेरणा ले गए और दुनिया बदल डाली, लेकिन हम में से किसी को भी वो प्रेरणा क्यों नहीं मिली? हम अब भी क्यों कटोरा थामे खड़े हैं और वे हमसे इतने आगे क्यों हैं?


मंदिर तो वही है, उनको प्रेरणा मिल गयी, हम में से किसी को नहीं मिली, यहां भी भेदभाव? या फिर हम एक अंधविश्वास को जन्म दे रहे हैं, हिन्दू बहुसंख्यक को खुश करने के लिए?


आप Ma हो और वो Mark, सिर्फ “rk” का फ़र्क है, आप भी जाओ उस मंदिर में और खड़ा करो कोई नया अजूबा, फिर बनाओ गूगल के हेड क्वार्टर से भी भव्य ऑफिस.


मैंने जवाब दिया –


आप ही ने कहा न मैं माँ हूँ और वो मार्क मुझमें और उसमें बहुत फर्क है… उसे जाना पड़ा क्योंकि वो बाबा से दूर देश में है और आस्था में भी…. मुझे कहीं नहीं जाना पड़ेगा क्योंकि मैं ऐसे हज़ारों बाबाओं के आशीर्वाद के बीच ही रहती हूँ, उन दैवीय शक्तियों से ही घिरी रहती हूँ, और मेरी आस्था मेरे अन्दर है…


और मैं प्रकृति से कुछ मांगती नहीं, मेरे हिस्से का सुख दुःख वो अपने हिसाब और समय से देता लेता रहता है, मैं बस उसके उस काम में बाधा नहीं बनती, वो जो जब देता है उसे कृतज्ञता से स्वीकार करती हूँ.


इस संवाद का ख़याल इसलिए आया कि आज मैं स्वर्गीय डॉक्टर नारायण दत्त श्रीमाली की सम्मोहन पर एक पुस्तक पढ़ रही थी, जिसका 14 वां संस्करण 1992 में लिखा हुआ है मतलब इसका पहला संस्करण इसके भी पहले लिखा गया होगा, लेकिन जिन पंक्तियों को मैं यहाँ उद्धृत कर रही हूँ वो आज भी प्रासंगिक है-




हमारा देश वर्तमान समय में एक विचित्र संकट से गुज़र रहा है, चारों तरफ एक अनिश्चिंतता, उदासी और ऊहा-पोह लगी हुई है, इस प्रकार से चारों तरफ असुरक्षा की भावना आ गयी है. जहां भी हम दृष्टी डालते हैं वहीं पर ऐसा लगता है जैसे कुछ अधूरा सा हो, अपूर्ण सा हो. हम अपने समाज की जिस प्रकार से स्थापना करना चाहते हैं, जिस प्रकार से उसका निर्माण और उसकी संरचना करना चाहते हैं, उस प्रकार से उसका निर्माण या संरचना नहीं हो रही है.


इसका मूल कारण हमारे जीवन पर पाश्चात्य प्रभाव है, क्योंकि भारतीय जीवन हमेशा से अंतर्मुखी रखा है. उसने अपने मन के अन्दर ज्यादा से ज्यादा पैठने की कोशिश की है.


हमेशा से उसका प्रयत्न यह रहा है कि किस प्रकार से हम प्रभु के दिए हुए इस शरीर को देखें, समझें, पहचानें, और इस शरीर में निहित शक्तियों की क्षमता का पता लगाएं. इसलिए हमारे पूर्वजों ने, ऋषियों ने बाह्य जगत को देखने की अपेक्षा तत्व का चिंतन किया, जिसके माध्यम से इस शरीर का निर्माण हुआ है.


उस प्रभु के सामने अपना सर झुकाया जिसने इस अप्रतिम शक्ति-संपन्न देह का निर्माण किया, उन तत्वों की और रहस्यों की खोज में अपना सारा जीवन लगा दिया जिससे कि व्यक्ति ज्यादा से ज्यादा सुखी हो सके, ज्यादा से ज्यादा शक्ति संपन्न हो सकें और उसका परिवेश ज्यादा से ज्यादा विस्तार पा सके.


इसकी अपेक्षा पश्चिम ने अपने शरीर को सजाने के लिए प्रयत्न किए, देह को ज्यादा से ज्यादा सुख सुविधाएं देने के लिए विज्ञान की रचना की, और इस प्रकार के अविष्कारों की तरफ विशेष ध्यान दिया, जिससे कि वो ज्यादा से ज्यादा आराम कर सके, ज्यादा से ज़्यादा कार्यविहीन हो सके, ज्यादा से ज्यादा देह सुख प्राप्त कर सके.


पर जब उसने भारत की तरफ झांका तो उसने पाया की यह देश गरीब अवश्य है, परन्तु इसके चेहरे पर संतोष है, इसके पास जो मन की शांति है वो आश्चर्यजनक है. तब विश्व ने पहली बार यह अनुभव किया कि बाहरी सभ्यता और शक्ति संचय से शान्ति नहीं मिल सकती, शान्ति प्राप्त करने के लिए यह आवश्यक है कि हम अपने भीतर झांकने का प्रयास करें और उन तत्वों को पुष्ट करें जिनसे हमारे शरीर का और हमारे विचारों का निर्माण होता है.


स्वर्गीय डॉक्टर नारायण दत्त श्रीमाली, अध्यक्ष -भारतीय ज्योतिष अध्ययन अनुसन्धान केंद्र


हमारी प्राचीन सभ्यता और ग्रन्थ बहुत से रहस्य हमारे लिए छोड़ गए हैं, लेकिन जैसे पाँचों उंगलियाँ एक सी नहीं होती वैसे ही सबकी विचार धारा एक सी नही हो सकती, ना ही सबकी यात्रा एक सी हो सकती है. जिसको जीवन यात्रा के जिस पड़ाव पर सही रास्ता मिल जाए वो मंजिल की ओर चल पड़ता है.


मार्क को स्टीव जॉब्स ने रास्ता दिखाया था, हम लोग उसी रास्ते पर हैं, बस जिसको जिस समय परमात्मा की झलक दिख जाती है उसकी यात्रा में निश्चिन्तता आ जाती है. तब तक एक अनिश्चिंतता लिए हुए भी पूरब वाले सब सही रास्ते पर ही चल रहे हैं. बस राज मार्ग पर चलते चलते कभी कभी भटकाव की पगडंडियों पर उतर आते हैं, जब समझ आ जाता है कि हम भटक गए हैं, तो पगडंडियों को छोड़कर फिर राजमार्ग पर लौट आते है.


वैसे ये कामना मेरे मित्र के दिल से निकली है, लेकिन मेरे लिए सच्चे दिल से निकली है कि मेरा भी गूगल जैसा भव्य ऑफिस बन जाए, तो प्रकृति ने उसे अपने रजिस्टर में ज़रूर नोट कर ही ली होगी… देखते हैं उनकी कामना कब पूरी होती है और मैं उस जादू को न मानने वाले मित्र के सामने कृतज्ञता प्रकट करते हुए कह सकूं… “जादू!!!!”


– माँ जीवन शैफाली



Comments


comments



#Uncategorized

No comments