Breaking News

आवश्यक है पुनः आत्मसाक्षात्कार ⋆ Making India


india muladhar attack making india

भारत जिसे कभी ‘विश्वगुरु’ के नाम से जाना था आज वही राष्ट्र विश्वपटल पर अपनी पहचान और अपने को स्थापित करने के लिए संघर्ष कर रहा है. यह वही राष्ट्र है जहां 5000 वर्षों पहले जब पूरा विश्व जंगलों से भी बाहर नहीं निकल पाया था तो यहां हड़प्पा सभ्यता के रूप में एक उच्चस्तरीय कोटि की नगरीय व्यवस्था अपने उच्च शिखर पर थी.


यह वही भूमि है जहां जब पूरा विश्व संकेतों में अपनी भावनाओं को व्यक्त करता था, अपनी भाषा की लिपि नहीं बना पाया था वहां भारत में वेद लिख दिया गया था जो आज भी प्रासंगिक है और आगे भी रहेगा. अनान्य विभूतियों ने साहित्य, संगीत, भाषा, विज्ञान, कला, गणित इत्यादि के क्षेत्रों में भारत का परचम लहराया और हर क्षेत्र में अनेक विभूतियों ने इस पावन धरती को चरमोत्कर्ष पर पहुंचा कर इसे सभ्यता का पर्याय बनाया और विश्व को सभ्यता से परिचित कराया.


लेकिन आज यदि वर्तमान में देखा जाए तो वही राष्ट्र जो कभी सभ्यता का पर्याय बना आज अंधेरे में अपने आप को खोज रहा है, आज फिर से आत्मसाक्षात्कार की आवश्यकता महसूस कर रहा है. सवाल यह उठता है कि यह स्थिति यहां तक पहुंची कैसे? ऐसा क्या हुआ जो वह अपने आप को भूल गया? किसने इसे भटका दिया? क्या नींव इतनी कमजोर थी कि हिल गई और हिला दी गई?


अगर आप रीढ़ की शारीरिक बनावट के बारे में जानकारी रखते हैं, तो आप जानते होंगे रीढ़ के दोनों ओर छिद्र होते हैं, जो वाहक नली की तरह होते हैं जिनसे धमनियां गुजरती हैं. ये इड़ा और पिंगला, यानी बांयी और दाहिनी नाड़ियां हैं. इड़ा और पिंगला जीवन की बुनियादी द्वैतता की प्रतीक हैं. इस द्वैत को हम परंपरागत रूप से शिव और शक्ति का नाम देते हैं.


या आप इसे बस पुरुषोचित और स्त्रियोचित कह सकते हैं, या यह आपके दो पहलू – लॉजिक या तर्क-बुद्धि और इंट्यूशन या सहज-ज्ञान हो सकते हैं. जीवन की रचना भी इसी के आधार पर होती है. इन दोनों गुणों के बिना, जीवन ऐसा नहीं होता, जैसा वह अभी है. सृजन से पहले की अवस्था में सब कुछ मौलिक रूप में होता है. उस अवस्था में द्वैत नहीं होता. लेकिन जैसे ही सृजन होता है, उसमें द्वैतता आ जाती है.


कुंडलिनी पावर साकेट की तरह है. यह तीन पिन वाला प्लग पाइंट नहीं है, यह पांच पिन वाला प्लग पांइट है. कुंडलिनी शब्द से मतलब ऊर्जा के उस पहलू से है, जो अब तक अपनी पूरी क्षमता को साकार नहीं कर पाया है.


आपने सात चक्रों के बारे में सुना होगा. मनुष्य के शरीर में कुल मिलाकर 114 चक्र हैं. वैसे तो शरीर में इससे कहीं ज्यादा चक्र हैं, लेकिन ये 114 चक्र मुख्य हैं. आप इन्हें नाड़ियों के संगम या मिलने के स्थान कह सकते हैं. यह संगम हमेशा त्रिकोण की शक्ल में होते हैं. वैसे तो ‘चक्र‘ का मतलब पहिया या गोलाकार होता है. चूंकि इसका संबंध शरीर में एक आयाम से दूसरे आयाम की ओर गति से है, इसलिए इसे चक्र कहते हैं, पर वास्तव में यह एक त्रिकोण है. मूल रूप से चक्र केवल सात हैं – मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूरक, अनाहत, विशुद्धि, आज्ञा और सहस्रार.




जिस तरह मानव शरीर में इन नाड़ियों एवं कुंडलिनी के संतुलन से शरीर सुचारु रूप से कार्य करता है उसी तरह मेरा मानना है कि प्रत्येक राष्ट्र की भी अपनी कुंडलिनी और नाड़ियां होती हैं. जब यह कुंडलिनी सही स्वरूप में जागृत रहती हैं और ऊपर की ओर सह्सत्रार की तरफ उठती हैं और नाड़ियां शुद्ध रहती हैं तभी वह विश्व को कुछ सार्थक दे पाएंगी. बहुत सावधानी से यदि आकलन किया जाए तो भारतवर्ष पिछले 500 वर्षौं से पहचान बनाने के लिए जूझ रहा है एक identity crisis महसूस कर रहा है.


इस identity crisis का मुख्य कारण इस देश की पहचान को इस राष्ट्र के लोगों के बीच से ही गायब करने का एक सुनियोजित षड्यंत्र है जिसे पहले औपनिवेशिक शासकों ने किया और सबसे बड़ा षड्यंत्र तो स्वतंत्रोत्तर काल में उन लोगों ने किया जिनके हाथ में सत्ता आई. अंग्रेजों का तो समझ में भी आता है कि साम्राज्यवाद और आर्थिक लूट उनका उद्देश्य था. अंग्रेजों का साम्राज्यवादी इतिहास उठाकर यदि देखा जाए तो यह मिलेगा कि उन्होंने केवल भारत को अपने साम्राज्य के अधीन करने के लिए बहुत सारे षड्यंत्रों का सहारा लिया वर्ना विश्व के किसी भी भू-भाग को उन्होंने सीधे आक्रमण करके उसको कब्जे में लेकर अपने साम्राज्य के अधीन किया.


इसका मुख्य कारण यह था कि इस राष्ट्र का मूलाधार चक्र बहुत प्रबल एवं जागृत था जिसे सैन्य आक्रमण द्वारा अधीन नहीं किया जा सकता था. इस भू-भाग पर आधिपत्य स्थापित करना इतना आसान नहीं था और इस कारण से इस राष्ट्र के मूलाधार चक्र पर सबसे ज्यादा चोट हुई है जिससे यह दिग्भ्रमित हुआ और अपने अस्तित्व को ही भूल बैठा. औपनिवेशिक शासकों ने सभ्यता के इस सोपान पर एकाधिकार के उद्देश्य के कारण इस सभ्यता को ही असभ्य घोषित किया और ‘सभ्यता’ को पश्चिमी मूल्यों के आधार पर परिभाषित किया, भारतीय सभ्यता का एक नकारात्मक बिंब खींचकर उसे विश्वपटल पर प्रतिबिंबित किया कि यहीं के जनमानस को उसके स्वयं के संस्कार एवं जीवनशैली हीन समझ में आने लगी.


लेकिन अंग्रेजी शासकों की यह मंशा चिरकालीन रूप नहीं ले पाई और उन्हें इस राष्ट्र को स्वतंत्र करके जाना पड़ा. यह चोट एक सुनियोजित तरीके से की गई है. यूरोपीय देशों की मिशनरियों ने अपने आर्थिक हितों को साधने के लिए इसे ‘अपनी सभ्यता’ के पैमानों से मापकर इस सभ्यता को दकियानूसी, पिछड़ी और असभ्य करार दिया और प्रमाणित किया जिसे ‘ ओरिएंटलिज्म’ के सिद्धांत के नाम से जाना जाता है.


विकसित होने का पैमाना शहरीकरण, औद्योगिकीकरण एवं एक धर्म हो गया. इस चकाचौंध ने भारतियों के मन में एक हीनता उत्पन्न की और भारत अंग्रेजों का गुलाम हो गया. मूलाधार में विसंगतियां अंग्रेजों द्वारा तो लाई गईं लेकिन ज्यादा आघात तो उन लोगों ने किया जो इस राष्ट्र के होकर पश्चिम के चकाचौंध में अंधे हो गए और इस राष्ट्र के प्रत्येक गौरवशाली परंपरा को एक सिरे से खारिज करते हुए उसे पिछड़ा करार दे दिया.


वो पाश्चात्यीकरण को आधुनिकता का पर्याय मान बैठे. पाश्चात्य चकाचौंध ने इन्हें ऐसा मानसिक रूप से अंधा बना दिया कि उन्होंने यहां की गौरवशाली परंपरा, इतिहास, संगीत, साहित्य, विज्ञान, गणित, लोकविधाएं इत्यादि पिछड़ी नजर आने लगी. आम जनमानस चाहे किसी भी जाति, धर्म, भाषा का रहा हो भूखा नंगा होकर भी अपने पेट पर पत्थर रखकर इस राष्ट्र की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष किया और भारत को स्वतंत्रता मिली लेकिन जिस सपने को उसने देखा था उसको जीने का सौभाग्य उसे प्राप्त नहीं हुआ.


कहां इस देश को आत्मसाक्षात्कार दिला कर उसके मूलाधार चक्र को फिर से जागृत करने की आवश्यकता थी और कहां उस पर और चोट करके उसको और असंतुलित किया गया. एक ऐसे वर्ग के हाथ में सत्ता आई जो पूरी तरह से भारतीय खोल में अंग्रेज थे जिन्होंने पश्चिमी मूल्यों के अनुसार इतिहास, आर्थिक विकास, शिक्षा इत्यादि का माडल अपना कर देश पर थोप दिया.


आर्थिक विकास का जो मॉडल अपनाया गया उससे इस देश की बहुमूल्य प्राकृतिक संपदा नष्ट हुई. इस देश में जहां जीव जंतुओं में भी ईश्वर को देखा गया है, नदियों को माता माना गया है, सब सुनियोजित ढंग से बर्बाद कर दिया गया और उन जंगलों में उसकी सुरक्षा और संरक्षण संवर्धन करने वाले आदिवासी आज बेघर कर दिए गए.


गंगा, यमुना, गोदावरी इत्यादि नदियां नालों के रूप में परिवर्तित हो गई हैं. वनस्पतियों एवं जंतुओं की कितनी जातियां विलुप्त हो गईं या विलुप्त होने के कगार पर आ गईं हैं. जमीन, जल, वायु जहरीले हो चुके हैं जिससे व्यक्ति काल के गाल में समा रहा है या विभिन्न बीमारियों के कारण अंग्रेजी दवाइयों पर जिंदा है. हंसी तो तब आती है जब शरीर को स्वस्थ रखने की प्राकृतिक एवं वैज्ञानिक क्रिया योग को सांप्रदायिक घोषित कर दिया जाता है.


मूलाधार चक्र पर यह प्रहार नहीं है तो क्या है?


वैश्विक पटल पर अपने को स्थापित करने का मतलब यह नहीं है कि आप अपने मूलाधार को ही भूल जाएं. यदि आप अपने मूलाधार को भूल कर स्थापित होने का प्रयास कर रहे हैं तो आप खुद स्थापित नहीं हो रहे हैं बल्कि दूसरे को स्थापित कर रहे हैं, आप बैसाखी का सहारा ले रहे हैं. मूल के बिना स्थापित होने का प्रयास भटकाव है और भारत के साथ यही हुआ. आप शाख़ से टूटे पत्ते की तरह हो जाएंगे.


सबसे पहले जहां उपनिषदों में वर्णित ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ के अनुसार मानव धर्म की स्थापना होनी चाहिए थी, वहां पश्चिम से आयातित ‘धर्मनिरपेक्ष्ता’ थोपकर उसके आड़ में वैमनस्य ही फैलाया गया. जिस राष्ट्र ने सनातन धर्म, जैन, बौद्ध, सिख इत्यादि धर्म को जन्म दिया, जहां इस्लाम ने भी स्थान पाया, अपने घर से ही बेघर हुए यहूदियों ने सबसे शांति से जीवन जिया इसाईयत ने भी स्थान पाया, वहां सेकुलरिज्म का नंगा नाच करके सनातन धर्म को मानने वाले हिंदू समुदाय को ही गाली का पर्याय बना दिया गया.


इस धरती से सनातन धर्म, बौद्ध धर्म, इत्यादि विश्व के कोने-कोने पहुंचा और लोगों ने सम्मान दिया और अपनाया. किसी भी देश में कोई प्रमाण नहीं है कि इन धर्मों ने जबरदस्ती, मार-काट या लालच देकर धर्मांतरण कराया हो या जबरदस्ती उनके ऊपर थोपा गया हो? वेद, उपनिषद, रामायण, महाभारत, पुराणों को पढ़ने वाले कट्टर और हिंसक करार दे दिए गए? और कुरान और बाईबल पढ़ना धार्मिकता के पर्याय हो गए और न पढ़ना कट्टरता? इसके कारण समाज में वैमनस्य आज भी जिंदा है और दिन पर दिन तीव्र ही होती जा रही है.


बताइए कि क्या यह मूलाधार चक्र पर प्रहार नहीं है तो क्या है?


कहां प्रत्येक भारतीय भाषा को संरक्षित, संवर्धित और विकसित करना चाहिए था तो वहीं विदेशी भाषाओं को थोपकर ऐसा माहौल बनाया गया कि अपनी मातृभाषा में बात करना हीनता और पिछड़ेपन का पर्याय बन गया. इस पावन धरती पर संस्कृत जैसी वैज्ञानिक भाषा को एक सिरे से नकार दिया गया और उसको बोलने वाला सांप्रदायिक करार दे दिया गया!


यह वह भाषा है जिससे भारत में बोली जाने वाली अधिकांशत: भाषाओं का जन्म हुआ है. यह प्राय: भारत के हर भू-भाग में बोली जाती थी. आज गौर से विश्लेषण किया जाए तो बहुत ही कम लोग मिलेंगे जिन्हें अपनी मातृभाषा हिंदी, मलयालम, तेलुगू, तमिल, कन्नड़ इत्यादि पर पूरी पकड़ हो. संस्कृत को यदि पुनः स्थापित किया जाए तो हर भारतीय भाषाई रूप से कितना समृद्ध हो जाएगा और हर भारतीय भाषा और भारतीय को समझना एवं उसके बीच की दूरियां नजदीकियां में बदल जाएगी. विविधताओं के साथ एकता एवं विविधता में एकता का कितना अनुपम उदाहरण होगा यह राष्ट्र. हर भाषा काम साहित्य ऐसे में कितना समृद्ध हो जाएगा?


बताइए मूलाधार चक्र पर यह प्रहार नहीं है तो क्या है?



Comments


comments



#Uncategorized

No comments