जिस दिन अपना ‘कैराना’ बना लिया उस दिन वो सैफुल्लाह का ‘खूंबहा’ भी मांगेगा
ये अजीब माजरा है कि बा रोज़ ए ईद ए कुर्बान
वही ज़बह भी करे है वही ले सवाब उल्टा!!
~इंशा
करीब बीस साल पीछे चलते हैं. सन 1999 की मई-जून का वक्त था जब सर्दियाँ बीतने पर भारतीय फौज़ी कारगिल की अपनी पोस्ट पर वापिस पहुंचे थे. वहां पहुँचने पर अचानक देखते क्या हैं? एक इस्लामिक मुल्क के कुछ अनुशासन विहीन सैनिक उनके इलाकों पर कब्ज़ा जमाये बैठे है!
और तो और, ना इन्होने वर्दी पहनी थी, ना कोई अपने इस्लामिक मुल्क का झंडा वगैरह लिया था. वो तो जब खदेड़ने की शुरुआत हुई तो पीछे से आते आर्टिलरी सपोर्ट और सैनिकों की ट्रेनिंग के स्तर से पता चला कि ये कोई घुसपैठिये नहीं!
ऐसे कोई इलाके को कब्जाने की कोशिश करे तो जो होना चाहिए, उनके साथ भी भारतीय सेना ने वही किया. शुरुआत तो छोटी झड़प से हुई, मगर जैसे-जैसे उनके कब्जे के स्केल का अंदाजा हुआ, वैसे-वैसे बात बढ़ने लगी.
आखिर हवाई हमलों की भी मदद ली गई और इस्लामिक मुल्क के कश्मीर कब्जाने के इरादों को फिर से चपटा कर दिया गया.
इस पूरे क्रम में इस्लामिक मुल्क पाकिस्तान के हुक्मरानों की हरकतें, उनके बयान भी देखने लायक थे.
शुरू में जब इस्लामिक मुल्क के फौज़ी मारे जाने लगे तो भारतीय सैनिकों ने तमीज दिखाते हुए कहा कि अपने सैनिकों की लाशें ले जाओ.
जो इस्लामिक मुल्क था, वो बेशर्मी से मुंह फेर कर खड़ा हो गया. कहा, ये तो हमारे फौज़ी ही नहीं!
कजरी गुरुघंटाल टाइप शुरू हो गए! हम नहीं जानते जी, सबूत लाओ जी! कौन है ये आदमी जी?
तो भइये, भारतीय सैनिकों ने फिर मारे गए सिपाहियों को सम्मान सहित दफन किया और लड़ाई जारी रही.
थोड़े दिन में जब इस्लामिक मुल्क के कई सिपाही मारे गए और कईयों के पास से उनके आइडेंटिटी कार्ड, फौज़ी दस्तावेज वगैरह मिलने लगे तो बेशर्मों ने कबूला कि हां भाई हमारे ही फौजी हैं.
ये आदत कोई एक बार की नहीं है. ये हारने पर की जाने वाली इस्लामिक परंपरा होती है. यकीन ना हो तो इतिहास पलटिये और भारत पर पहला इस्लामिक हमला देखिये.
उथमान जब हमले में हार के और अपने मुघिरा जैसे भाइयों को देबल की लड़ाई में खोकर लौटा था तो ख़लीफा ने उसे पहचानने से ही इनकार कर दिया था और कहा था कि उसकी गलती से अरब मारे गए हैं. इसलिए जितने अरब मरे उतने ही उथमान के काबिले के लोगों को मार डालना चाहिए.
जहाँ आपका पलड़ा भारी होगा वहां ये अपनी गलती और जहाँ इनका पलड़ा भारी होगा वहां आपको क़त्ल करने वाले को “गाज़ी” कहा जाता है. काफिरों को हलाक़ करने की कोशिश में मारे गए लोग शहीद कहलाते हैं.
इस्लामिक मुल्क पाकिस्तान के लश्कर के खिलाफ लड़े थे, यही वजह है कि उनके हिसाब से परमवीर चक्र पाने वाले हवलदार अब्दुल हमीद “शहीद” नहीं कहे जाते हैं.
कोई एहसान नहीं कर रहा आतंकी की लाश ना कबूल कर के ‘वो’.
चलिए आतंक की क्लास उसने इन्टरनेट पर कर ली ये मान भी लें, तो बन्दूक और गोलियां क्या उसकी जेब में इलेक्ट्रॉनिकली ट्रान्सफर हो रही थी?
दिखा नहीं घर में किसी को कि बीस साल का लौंडा बम बनाना सीख रहा है?
भावना बेन को किनारे बिठाइए हुज़ूर! जिस दिन ‘उसने’ अपने इलाके का “कैराना” बना लिया, उस दिन ‘वो’ सैफुल्लाह का “खूंबहा” भी मांगेगा.
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