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क्यों नहीं है दक्षिणपंथ का अपना मीडिया? ⋆ Making India



बहुत जाने माने लोग लिख रहे हैं इस विषय पर. थोड़ी अधूरी सी लगी बातें, सोचा पूरी कर दूँ.


मीडिया के दो लक्ष्य होते हैं, या तो धन कमाना या फिर जनमन को प्रभावित करना. दूसरा लक्ष्य दूर की सोच होती है और उसमें पैसा जाता ज्यादा है, आता बहुत कम है. जिनकी सोच केवल निवेश पर मुनाफा गिनने तक ही है उन्हें दूसरा ध्येय न समझ आयेगा, न गले उतरेगा. यही मुख्य कारण है कि भारत में कोई दक्षिणपंथी मीडिया पर्याय उपलब्ध नहीं है.


जब आप दक्षिणपंथी कहते हैं तो आप राजनीति के दायरे में बात कर रहे हैं. मीडिया के मायने क्या हैं आप के नजर में? पेपर भी मीडिया है, चैनल भी. ‘सोशल’ भी सब मीडिया ही है.


कितनी मुख्य भाषाएँ पढ़ी जाती हैं अपने देश में? हिन्दी, गुरुमुखी, बंगला, असमी, ओडिया, मराठी, गुजराती, कन्नड, तेलुगू, तमिल, मलयालम + इंग्लिश. ग्यारह तो ये ही हुई. सब के लिए ब्यूरो, ऑफिस, स्टाफ, प्रेस? वार्ताहर, पत्रकार, लेखक? परमानेंट कितने, कांट्रैक्ट या जरूरत के अनुसार कितने? कभी किसी समाचार वाले से पूछिये कम से कम स्टाफ कितना लगता है.


चैनल की यही बात. फिर चैनल के लिए स्टुडियो, कैमरामैन, रिपोर्टर, ऐंकर, इंटरव्यू लेनेवाले – काफी स्टाफ की आवश्यकता होती है. जगह-जगह ओबी वेन्स भी लगेगी ही. अलग-अलग चैनल्स से टाइ अप भी आवश्यक होंगे न्यूज़ फीड या सिंडिकेटेड न्यूज़ के लिए. और एक बात होती है, cost of entry – समय के साथ-साथ यह बढ़ती ही जाती है. अपग्रेड की भी लागत कम नहीं होती और हर दिन बढ़ती ही जाती है.


और यह बात केवल न्यूज़ चैनल की हो रही है, लेकिन चैनल तो एंटरटेनमेंट चैनल भी होते हैं जिनके द्वारा काफी कंटेन्ट परोसा जाता है. कितने प्रोग्राम आप ने देखे होंगे जहां हमारे रीति-रिवाजों का मज़ाक उड़ाया जाता है? Narrative वहाँ भी सेट होता है.


कितनी भाषाओं में कितने चैनल चलाएँगे आप? कैसा और कितना कंटेन्ट बनाएँगे आप? कितनी वैरायटी देंगे? क्या अलग देंगे अन्यों से?




खयाल रहे कि दर्शक कुछ मिनिटों के लिए ही आप को समय देंगे, अगर आप पैसे बचाने घटिया काम करेंगे तो कुछ सेकंड में आप की करोड़ों की लागत गटर में जाती दिखाई देगी. दर्शक कोई त्याग नहीं करता, उसे एंटरटेनमेंट चाहिए तो अच्छा ही चाहिए.


कुछ तो समझ गए होंगे आप कि यह काम बहुत बड़ी लागत मांगता है. एक और रोड़ा भी है जिसका शायद ही किसी ने खयाल किया हो. वो यह है कि इस पूरी इंडस्ट्री पर किसका कब्जा है. अब जरा बूझते हैं इस पहेली को.


मीडिया में ट्रेनी भी आते हैं तो कहाँ से? उन इंस्टीट्यूट्स पर किसका कब्जा है? आप को लेखक, कवि आदि सब मिलेंगे ज़्यादातर आर्ट्स से वहाँ पूरा लाल हरा है. मीडिया में जो कंपनियाँ नौकरियाँ दे रही हैं वहाँ आप को सिलैक्ट करने वाले तथा जिनके मातहत आप होंगे उनकी सोच क्या है? फिल्मों में क्या स्थिति है? टीवी में क्या स्थिति है? कौन बैठे हैं सभी पदों पर?


और, यह बुरा लगेगा, लेकिन क्या आप ने वाकई दर्जे की तुलना की है? याद रखिए, दर्शक को एक दर्जे की आदत हो गयी है, वो अब पकाऊ प्रवचन या बचकानी रचनाएँ स्वीकार नहीं करेगा. दर्शक ही कूड़े में ड़ाल देंगे, वहाँ आप उनको tag करके लाइक या subscribe करने की विनती नहीं कर सकते, आप उन्हें जानते भी नहीं.


ऊपर से, जिनसे लड़ने के लिए आप ने यह सब खड़ा किया है वे आप का मज़ाक उड़ाते रहेंगे वो अलग, उसका भी प्रभाव पड़ता ही है. कंधे पर बकरे का बच्चा लेकर चलते ब्राह्मण को चार ठगो ने कैसे उल्लू बनाया कि वो बकरा नहीं कुत्ता है ये कहानी आप ने सुनी ही होगी. वही होता है, वही होगा भी. कंटेन्ट दमदार चाहिए.


ऐसा नहीं कि वहाँ आरक्षण है – बिलकुल नहीं, पूरा मेरिट पे काम चलता है. आप परफॉर्म नहीं करेंगे तो आप को कोई पालने वाला नहीं है. लेकिन हाँ, आप अगर राष्ट्रवादी या हिंदुत्ववादी या केवल राष्ट्रद्रोह क्या है इस पर भी कडा रुख रखते हैं, आप के लिए ‘टुकड़े होंगे, इंशाल्लाह’ ये अभिव्यक्ति की आज़ादी नहीं है तो आप कब बाहर कर दिये जाओगे, पता भी नहीं चलेगा.


अब सोचिए – लोग आम तौर पर आज दो साल से अधिक समय तक एक जॉब में नहीं रहते. आप के पास नौकरी करके जिन्हें राष्ट्रवाद का लेबल लगा होगा उसे और कोई नहीं रखेगा. एक दो केस हो गए तो आपके पास आने वाले रुक जाएँगे.


दूसरी बात, एक ही जगह लंबे समय काम करने से लोग प्रेडिक्टेबल हो जाते हैं. और जैसे ही प्रेडिक्टेबल होते हैं, दर्शक प्रेडिकटेबल तरीके से चैनल स्विच कर लेते हैं. एक ही कलाकार को कितने रोल में दिखाएंगे आप? कोई नहीं देखेगा. और आप के यहाँ से निकले तो हर दरवाजा बंद, तो कौन आयेगा आप के पास?


अब बताएं, इतने घाटे के धंधे में कौन हाथ डालेगा? कौन बिज़नसमैन अपना पैसा लगाएगा? राइट? तो फिर ये बताइये कि जो घाटा कर रहे हैं उन चैनल में कौन पैसे लगाए जा रहे हैं और क्यों? क्या कारण या क्या जरूरत है उन्हें हमारे यहाँ narrative सेट करने की?


यहाँ इतना ही कहूँगा कि धंधे में नफा नहीं हुआ तो नुकसान समेटकर उस धंधे से जल्द से जल्द निकलने की सोचने वाले लोग इस मानसिकता को समझ नहीं सकते. इसी लिए भारत में दक्षिणपंथी मीडिया नहीं है.



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