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पूरी तरह लाल किरान्ति और सूजी हुई प्रगतिशीलता ⋆ Making India



सभी डार्लिंगों और डार्लिंगावों को लाल सलाम.


इससे पहले कि मैं अपनी आत्मकथा सुनाऊं, मैं आप सब को अपनी फैमिली बैकग्राउंड बताना चाहता हूँ.


मैं बिहार के गोपालगंज जिले का निवासी हूँ. मेरे पिता सीरी दिलकबूतर महतो भाकपा माले के नेता थे. वैसे तो वे हमेशा किरान्ति के फेर में पड़े रहते थे, पर उनसे कभी किरान्ति हो नहीं पाती थी.


उन्होंने सिर्फ एक बार एक छोटी सी किरान्ति की थी, जब गांव के डेढ़ बीघे गैरमजरूआ चारागाह जमीन पर कब्जा कर अपना बथान बनवा लिए थे. पर उसके बाद वे कभी किरान्ति नही पाये थे.


सन दो हजार चार में जब भारत के तत्कालीन गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी चुनाव प्रचार करने गोपालगंज आये, तो मेरे पिताजी ने एक बार फिर किरान्ति करने की सोची.


वे अपने तीन-चार साथियों के साथ वहां किरान्ति करने पहुंचे, और काला झंडा दिखाने लगे. फिर क्या था, आडवाणी की सुरक्षा में लगे दैत्य जैसे जवानों ने उनको पकड़ा, और उनकी किरान्ति पर दनादन लाल सलाम करने लगे.


मेरे पिता अपनी किरान्ति इधर करते तो इधर से लाल सलाम होता, और उधर करते तो उधर से लाल सलाम होता. कम्बख्त बीस जवानों ने उन्हें घेर लिया था, और दनादन लाल सलाम कर रहे थे.




दस मिनट में उनकी किरान्ति पूरी तरह लाल हो गयी, उनकी प्रगतिशीलता सूज गयी और उनके दसों द्वार खुल गए. दस मिनट बाद जब वे राक्षस मेरे पिताजी को छोड़ कर गए, तब तक उनके शरीर के अलग-अलग अंगों से छह प्रकार के तरल पदार्थों का उत्सर्जन हो चुका था.


वह दिन था और आज का दिन है, मेरे पिताजी किरान्ति का नाम तक नही लेते हैं. वे तो “कि” से प्रारंभ होने वाले किसी भी शब्द का उच्चारण नहीं करते.


तो यह थी मेरे पिताजी की कथा, अब मैं आपको अपनी कथा सुना रहा हूँ.


गोपालगंज के ‘बाबू छुछुनर सिंह छुरछुरी परसाद इंटर कॉलेज’ में बियाह पढ़ते समय मैंने जेएनयू का बहुत नाम सुना था. मुझे पता था कि वहां हर चीज की आजादी है. आदमी जिससे चाहे प्यार कर सकता है, क्योंकि वहां धारा तीन सौ सतहत्तर जैसी किसी भी रूढ़िवादी नियम को नहीं माना जाता है.


हम यह भी जानते थे कि वहां ‘किस ऑफ़ लभ’ जैसे लोकहितकारी कार्यक्रम सदा ही आयोजित होते रहते हैं. सो जैसे ही मेरा इंटर का रिजल्ट आया, मैंने टप से वहां नाम लिखवा लिया.


यहां आ कर मुझे पता चला कि जितना मैं जानता था, जेएनयू उससे बहुत ज्यादा प्रगतिशील है. मैंने देखा कि यहां पढ़ाई के अलावे सब कुछ होता है. मुझे लगा कि यहां आ कर मेरा जन्म लेना सफल हो गया.


इसी बीच मुझे छात्र संगठन ‘आइसा’ के बारे में पता चला. आइसा शब्द सुन कर ही ऐसा लगता है, जैसे यह किसी छात्र संगठन का नाम न हो कर किसी शॉर्ट-स्कर्ट धारी अत्याधुनिक रमणी का नाम हो. मैं तो नाम सुन कर ही आनंदित हो उठा. मैंने गोंय से आइसा ज्वाइन कर लिया, और किरान्ति के सपने देखने लगा.


यहां मुझे हर प्रकार का आराम मिलता था. कभी-कभी पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगाने, और भारत की बर्बादी तक जंग छेड़ने की कसम खाने के बदले में रोज शाम को एक बोतल दारू मिल जाती थी, हम रोज रात को पी कर जर्मनी के सपने देखने लगते थे.


इसी बीच फागुन का महीना आया. अब हम चूंकि गांव देहात के आदमी थे, सो हमारे ऊपर फागुन तनिक फफक के चढ़ गया था. हम दिन-रात किरान्ति के सपने देखने लगे थे. मुझे उम्मीद थी कि जेएनयू जैसे आनंदलोक में मुझे सिंगलत्व का दुःख नहीं भोगना पड़ेगा, और फागुन में मेरी सेटिंग हो ही जायेगी.


इन्ही दिनों एक दिन हमारे नेताजी ने बताया कि हमको रामजस कॉलेज में किरान्ति करनी है. नेताजी ने कहा कि इस किरान्ति में जो युवा सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करेगा, उसे हेड किरान्तिकारी का दर्जा मिल जायेगा और फिर उसे किसी के भी साथ किरान्ति करने का लाइसेंस मिल जायेगा.


फिर क्या था, मेरे सारे अरमान लोकतंत्र की जनता की तरह जाग उठे. मैंने सेकेण्ड गिन-गिन कर उस दिन का इंतजार करना सुरु कर दिया.


नियत दिन पर जब सारे किरान्तकारी रामजस कॉलेज पहुँचे, तो मैं सबसे ज्यादा उत्साहित था. मैं “हमें चाहिए आजादी” का नारा लगाते समय कुछ यूँ उछल रहा था, जैसे तेरह साल पहले पुलिस की लट्ठ खाते समय मेरे पिता उछल रहे थे.


मेरे हौसले आसमानों पर थे. हम दनादन नारे लगा रहे थे. लेकिन मेरा दुर्भाग्य मेरा पीछा नहीं छोड़ता, हमने अभी दस-बीस नारे ही लगाये थे कि बीस-पच्चीस मोटे-मोटे मुस्टंडों ने आ कर घेर लिया और बिना हालचाल पूछे ही हमें धोना शुरु कर दिया.


मुझे लगा कि एकाएक कोई भूकम्प आ गया. हम भागने लगे पर हरामखोरों ने चारों तरफ से घेर लिया था. वे हमें ऐसे धो रहे थे जैसे उन्होंने धोने का क्रैश कोर्स किया हो.


हम अपनी किरान्ति कितना भी इधर-उधर करते, उन दुष्टों की लट्ठ हमारी किरान्ति पर ही गिरती थी. धीरे-धीरे हम भारतीय वामपंथ की तरह जमीन पर गिर कर छटपटाने लगे, पर उन हरामखोरों को दया नहीं आयी.


आधे घंटे तक पूरी ईमानदारी और लगन से हमारी किरान्ति को लाल करने के बाद जब उन्होंने हमें आजादी दी, तब तक हमारी किरान्ति लुट चुकी थी और हमसे खड़ा न हुआ जा रहा था.


उसके अगले दिन ही हमने बिहार की ट्रेन पकड़ी और सीधे घर पहुँच के दम लिए. आज तीन दिन से मेरी माँ मेरी किरान्ति पर हल्दी-चूने का लेप लगा रही है.


अब मैंने कसम खा लिया है कि फिर कभी किरान्ति का नाम तक नही लूंगा. अपने पूज्य पिताजी की बात मान कर मैंने हथुआं बाजार में चाउमिन का ठेला लगाने का मन बना लिया है.


यही हमारी कथा है, और यही हमारी ब्यथा है.


खदेरन महतो
पूर्व पढ़वैया सह किरान्तिकारी
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय,
भाया- मोतीझील वाले बाबा



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