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सचमुच, बहुत बढ़ गई है भारत में असहिष्णुता! ⋆ Making India



दस साल पहले मैं यहाँ लंकाशायर के एक छोटे से शहर में एक डिस्ट्रिक्ट जनरल हॉस्पिटल में काम कर रहा था. तब एक घर में हम सात-आठ लोग रहते थे. उनमें तीन बंगाली थे… तीनों कम्युनिस्ट.


एक महिला थीं बंगाल के एक्स चीफ-मिनिस्टर की भाँजी या भतीजी. कविता-कहानी-साहित्य पढ़ने वाली… कल्पना लोक में रहने वाली… पर कम्युनिस्ट है क्योंकि खानदानी कम्युनिस्ट हैं.


उनका एक पूडल कुत्ता है, जिसके डॉग-फूड पर हजारों खर्च करती थीं. कुत्ता भी था रशियन नस्ल का. उसका एक ट्रेनर आता था, जो भारी फीस लेता था… पर गरीबों का दर्द बरदाश्त नहीं होता, इसलिए कम्युनिस्ट थीं…


वैसे सचमुच बहुत केयरिंग थीं. सचमुच, हम सबके लिए बड़ी बहन जैसी थीं. उन्हीं का बनाया खाना खाकर हम सब जिन्दा रहे साल भर. आज वह कलकत्ता के एक बड़े कॉर्पोरेट हॉस्पिटल में इंटेसिविस्ट हैं.


एक ईएनटी सर्जन था. कॉलेज के दिनों में बंगाल में कॉलेज की स्टूडेंट यूनियन का नेता रह चुका था… एसएफआई या छात्र-परिषद, किसी का… पता नहीं अभी कहाँ है… इंग्लैंड में ही कहीं है.


एक परम कम्युनिस्ट था… डेढ़ हड्डी का, जैसे कि कम्युनिस्ट सामान्यत: होते हैं… मरगिल्ले. यूनिवर्सिटी टॉपर था. बंगाल से एमबीबीएस किया था. पटना (पीएमसीएच) से एम डी था. कॉलेज के दिनों का क्रांतिकारी.


कहता था – मैं अपनी इंडियन आइडेंटिटी में विश्वास नहीं करता हूँ. आइडियॉलॉजिकली मैं ह्यूमैनिस्ट हूँ, कल्चरली बंगाली हूँ. इसमें इंडियन होना मेरे लिए इम्पॉर्टेंट नहीं है…. मार्खेज, काफ्का, गुंटर ग्रास… किस-किस की बात करता था, जिस पर मैंने कभी सर नहीं खपाया है. उसके मुँह से एक जुमला सुनता था – “पोस्ट-मॉडर्निज्म”…पता नहीं यह है क्या बला…




एक और लड़की थी, हिमाचल की. उसके पिता जेएनयू में किसी विभाग में प्रोफेसर थे. सीपीएम के मेम्बर थे. तो नतीजा यह कि वह भी कम्युनिस्ट थी… जो भी मतलब समझती हो इसका…


बात करने में कर्कश…बदसूरत नहीं थी, पर उसकी शकल भी पता नहीं क्यों करेले जैसे लगती थी. हर बात को बहस में, और हर बहस को झगड़े में बदल डालने की कला में पारंगत. हमेशा उसे देखकर मुझे अरुंधति राय याद आती थी… हमेशा मैं सोचता था… इसे कोई बन्दा जिंदगी भर कैसे झेलेगा?


उसने एक अच्छा काम किया – एक अंग्रेज से शादी कर ली. अंग्रेजों को एडवेंचर का स्पिरिट बहुत होता है. कभी पहाड़ पर चढ़ते हैं, अन्टार्कटिक जाते हैं, ग्रैंड कैनयन में बंजी जम्पिंग करते हैं, पैराशूट से कूदते हैं… ऐसे ही किसी एडवेंचरस बन्दे ने उससे शादी की होगी…


उस ईएनटी सर्जन को छोड़कर हम चारों एक ही कन्सलटेंट के अंडर में काम करते थे. वे कन्सलटेंट भी बिहार के ही थे. और घोर कम्युनिस्ट. पटना से थे.


मेडिकल कॉलेज के दिनों के किस्से सुनाते थे… कैसे गाँवों में जाकर नक्सल आन्दोलन का प्रचार करने के लिए काम करते थे… कैसे पुलिस का वारन्ट निकला था तो छिप-छिपा कर एक्जाम देने गए, पुलिस गेट पर खड़ी थी, आधा पेपर लिख कर भागे.


किसी तरह घर वालों ने इंग्लैंड भगा दिया. यहाँ भी लेबर पार्टी के साथ मिलकर खान मजदूरों की हड़ताल में परचे बांटते थे…. आज मजे से इंग्लैंड में कन्सलटेंट कार्डियोलॉजिस्ट हैं… दो-दो बेटे पूँजीवाद के गढ़ अमेरिका में रह रहे हैं… पर सिंगल मॉल्ट स्कॉच के साथ आज भी क्रांति की मीठी-मीठी यादें ‘चखने’ का काम करती हैं.


वैसे वे थे बहुत ही नेक और नरम दिल. सबकी बहुत मदद करते थे. मुझे तो बेटे जैसा मानते थे. मुझे यहाँ तक ऑफर किया कि मेरे ही घर पर रहो… खाली पड़ा है.


मैं इस डर से उनसे मुँह छुपाता था कि कभी तो उन्हें पता चलेगा कि मैं तो बिल्कुल दूसरे पोल पर हूँ. तो उन्हें कितना दुख होगा कि कहाँ एक संघी को अपने घर पर रख रहे थे…


तब उन सबके बीच मैं अकेला संघी था. एक ही घर में हम रहते, खूब बहसें होतीं, गर्मा-गर्मी भी होती. पर साथ रहते, एक दूसरे का ख्याल रखते थे.


आज वे सभी लोग एक फोन कॉल की दूरी पर हैं. पर मैं किसी से संपर्क नहीं करता. जानने की कोशिश भी नहीं करता कि भारत के आज के इन मुद्दों पर उनकी सोच क्या है? वे किस कन्हैया या खालिद के साथ खड़े हैं?


अच्छा है, संपर्क नहीं है…. इसलिए सबको याद करता हूँ मित्र, हितैषी समझकर. पर आज अगर साथ रहना होता तो मैं उनमें से किसी को बर्दाश्त कर पाता क्या?


सचमुच, भारत इन्टॉलरेंट हो गया है… दो भागों में बंट गया है…. कुरुक्षेत्र सजा हुआ है… यहाँ कोई भीष्म, कोई द्रोण… कोई स्वजन, गुरुजन नहीं हैं…



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