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साहिर की अमृता या इमरोज़ की प्रीतम! ⋆ Making India


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साहिर से मेरा पहला परिचय ‘अमृता के साहिर’ के रूप में हुआ था और अमृता का ‘इमरोज़ की प्रीतम” के रूप में. इमरोज़ आहिस्ता आहिस्ता जगह बनाते गए. प्रीतम के नाम इमरोज़ के ख़तों ने मुझसे प्रेयस के नाम पहला सार्वजानिक प्रेम-पत्र लिखवाया.


ग़ुरबत के दिनों में सिरहाने रखे इमरोज़ के ख़त हौसला बंधाते.. इमरोज़ किसी ट्यूशन मास्टर सरीखे मुझसे इश्क़ के हिज्जे सुधरवाते और बराबर में बैठी अमृता अँधेरे की पीठ पर साहिर साहिर लिखा करतीं…


ये साहिर की अमृता या इमरोज़ की प्रीतम ही हो सकती थीं जो तीसरा पहर शमशान में बिताने के बाद रात मुझसे प्रेम पत्र लिखवाती थीं…


मेरे गुलमोहर,
सलामती पूछने की आदत अब छूट गयी है. तुम पूछो इससे पहले ही मैं बोल देती हूँ …ज़िंदा हूँ… तुम्हारे नाम दूसरा ख़त लिख रही हूँ. तुम्हारे नाम से लिखे ये वो खत हैं जो तुम तक नहीं पहुंचे..


अगर इस ख़त को कभी पढ़ पाये तुम… तो तुरंत सवाल दाग दोगे. पहला ख़त कहां है? मैंने महससू किया है कि बिना पते के लिखे गए ख़त जितने पुराने होते जाते हैं उनमें ज़िंदगीपने की भभक आरोहीक्रम में बढ़ती जाती है.


वैसे इससे पहले भी मैंने तुम्हें अपनी हथेली की छाप वाली एक पाती दी थी.. पाती के भीतर मेरी गुलाबी हथेली उसमें दिल बनाती थी…. और उसमें लिखा …,” मिलन! क्षण विदा से पहले के आसान नहीं” …. देखना ज़रा ! मेरी लम्बी ह्रदय रेखा उस ख़त पर मुहर लगाती थी….


वे मरघट दिन थे …जब अजनबी चिताओं को विदा कर मैं शाम दरवाज़े की सांकल सरकाती …तो बीती रात के रंग और कूची शिकायतें करती… कागज़ पर आधी हथेली का दिल पसीज चुका होता …सिरहाने रखे प्रीतम इमरोज़ के ख़त सवालिया नज़रों से एक साथ पूछ बैठते -“तृष्णा तेरे ख़त की प्यास कब बुझेगी?’




मैं आधी हथेली के दिल को दूसरी हथेली से संभालती…. पानी भरे मग में मिल्की व्हाइट फिश होती थी और बाहर मैं… और अघोरी रातों में ए फ़ोर शीट के एक कागज़ ने ख़त की शक़्ल अख़्तियार की… इस .दीवाली की अगुवाई में जब सारा शहर साफ़ हो रहा था.. तो मैं तुम्हारी टहनियाँ और पिछले मौसम के गुलमोहर सारे शहर में इकठ्ठा करती फिर रही थी.


रंग कभी कबाड़ होते हैं भला? मैं हर रंग को सजदा करती हूँ. वजह जानते हो इसकी गुलमोहर? मुझे तुम्हारे रंग से प्रेम है. मैं तुम्हारा नारंगी उँगलियों की पोरों से नहीं. पलकों से महसूसती हूँ.


तुम होते तो कहते बड़ी वाली पागल है तू. सही काम में दिमागलगा अपना. अह बायीं तरफ़ कुछ धड़कता है मुझे ज़ोरों से… दिल और दिमाग सांठ-गाँठ से चलते हैं जानां… साथ साथ नहीं… समझो इसे… बड़े भोर रेल की पटरियों की ठंडक मेरे तलुवे जज़्ब कर लेते हैं… स्ट्रीट लाईट में दपदप करते हरसिंगार तुम्हारे बहाने मुझमें उतर जाते हैँ…


मैं गोदांग गरम अपने होठों से लगाकर सड़क किनारे पड़ी ‘कैन लव हैपन ट्वाइस’ को देखती हूँ. दिमाग अपनी भूमिका बदल देता है. दिल सवाल करता है – कैन इश्क़ हैपन ट्वाइस?’.


पता है समय पीठ नहीं दिखाता कभी. सामने से वार करता है. अच्छा कहाँ होता है कुछ भी…. अच्छा न होने की स्वीकारोक्ति ……इतनी आसान भी नहीं… कागज़ के पुर्ज़े पर लिखी एक नज़्म के सहारे…. उसकी रौशनाई का पता कौन लगा पाया है… जो चिट्ठियां कभी शहद हुआ करती हैं…. कब उनमें लौट आएं मधुमक्खियां …कहा नहीं जा सकता….


गुलमोहर ! तुम बने रहो रानी मधुमक्खी…. जी करता है सरहद पार पते पर एक ख़त भिजवाकर पूछूं- ओ हुस्ना! अपने जावेद से विदा से पहले के क्षणों में क्या माँगा था तूने? फुलियाई सरसों का पहला पीला रंग…. भूली तो नहीं थी कहना…. स्वेटर पहन लेना बढ़ गयी हैं सर्दियाँ ….या गेहूं की अधपकी बालियों की कच्ची महक मंगवाई थी… क्या पनीली आँखें लिए तूने मारा था टहोका और कहा था …ए जावेद देख! तेरा लाया मेरे कान का झुमका …दंगों में कहीं गुम हो गया …ढूंढ देना फिर जाना सरहद पार ….और तेरे कान की सूनी लवें देख ….जावेद ठिठका नहीं?….या फिर उसे ढूँढ़ते सरहद पार चला आया……….


गुलमोहर अगर तुम्हें पता हो तो लिख भेजना…. हीर के प्याले का ज़हर …..रांझे की तड़प लिखना……….. सोहनी का कच्चा घड़ा …..महिवाल का इंतज़ार…… संग लिखना ….लकीर भर सरहद…. आसमान भर क़िस्से ….साहिबा के ताज़ी मेहंदी वाले हाथों की रंगत… लिखना मिर्ज़ा के पूरे तीन सौ तीर…..


– तुम्हारी मृग तृष्णा



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